कहते हैं इंदिरा गांधी एक कट्टर भारतीय महिला थी। वह समाज को साम्यवाद के एक छोर पर ले जाना चाहती थी, यही कारण था कि उसने बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किया। गरीबों और अमीरों के सामंजस्य को बैठाने के लिए जो कीमत राजा को अदा की जाती थी, उसने उसको भी हटाया। यह भी कहा जाता रहा है कि स्वर्ण मंदिर पर उसका हमला उसकी ही चाल का विपरीत हो जाना था।
गुरु नानक देव जी नीति से लड़ते रहे। उन्होंने इंसान को इंसान बनने को बोला।
‘नानक दुखिया सब संसार’ और शायद दुख में इंसान अपने आप को ही सबसे दुखी नजर आता है। यह दुख कब बढ़ता रहता है, इसका मूल लगाना संभव नहीं है। धीरे-धीरे दुख किसी और मर्म की तरफ लेकर जाता है। एक विद्रोह कि तरफ, शायद यही कारण था कि गुरु गोविंद सिंह जी ने एक नए खालसा को स्थापित किया।लुधियाना में फेरबदल हो रही थी। सरकार का पूरा ध्यान यहां पर ही था। 1970 में औद्योगिक रूप से तंगी चल रही थी। पश्चिमी पाकिस्तान जो कि आज का बांग्लादेश है, वहां पर घोर कयामत मची हुई थी। लुधियाना के गांव में रहते थे सरदार ईश्वर सिंह जी और सरदारनी नेहमत कौर, गुरु की वाणी में मानने वाले अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करने वाले।
सरदारजी लक्कड़हारे का काम जानते थे, थोड़ा बहुत कार वगैरह को भी ठीक करना जानते थे। एक बार एक आला अफसर की गाड़ी खराब हो गई। सरदारजी रास्ते से गुज़र रहे थे, कुछ ज्यादा कमी नहीं थी। पंद्रह मिनट में ठीक कर दी। अब अफसर इतना खुश हुआ कि उसने ड्राईवर के तौर पर उनको रखने का प्रस्ताव दिया। परिवार में खुशी का माहौल था लक्कड़हारे का इतना कोई काम भी नहीं था और यहीं पर ही यदि उसे कोई सरकारी नौकरी मिल जाती है तो बात ही क्या। माता-पिता थोड़े बहुत अचरज में थे, उनका बेटा उनसे दूर जाकर शहर में रहने वाला था। पर यह मौका हाथ से गुमाने वाला नहीं था। नौकरी के सिलसिले में उन्हें मुख्य लुधियाना जाना पड़ा। यहाँ एक प्रकार की ऐसी दुनिया थी, जहां पर गंदगी ही गंदगी थी और बड़ी मुश्किल एक घर मिला जिसके आसपास के लोग रहते थे, अलग ही दुनिया के, जिसको समाज ने अलग-थलग एक जगह जहां पर रखा। वहां की आबोहवा में भी एक अलग ही गमक। सरदारनी बड़ी मुश्किल से वहां पर रह पाती, पानी में भी उसके एक अलग ही शोर था
आजकल भारत में माहौल खराब चल रहा था, पुलिस प्रशासन को कुछ पड़ी नहीं थी। सब के सब मीडिया की कवरेज पश्चिमी पाकिस्तान पर थी। उसको एक आज़ाद मुल्क बनाना था, या फिर कवरेज थी तो बदलती हुई सत्ता की। सब कुछ एक कायदे से चल रहा था, समाज का कायदा था। सरदारनी पेट से थी और उसकी तबियत खराब हो रही थी, उसकी दाई ने जवाब दे दिया था। सुबह का समय था पास के गुरुद्वारे में अरदास शुरू हुई। सरकारी अस्पताल बन्द था, उसमें कुछ काम चल रहा था। उसे बड़े अस्पताल में ले जाने के लिए कहा गया। बड़े अस्पताल में डॉक्टरों ने एक न सुनी, वहां पहले पैसे जमा होते थे। सरदार जी बड़े अफसरों के पास गए हाथ-पैर फैलाये। कमाल की बात तो यह थी कि आला अफसरों ने भी अपना पल्ला झाड़ लिया था। जिनके वजह से वो अपनी जड़ें छोड़ मुख्य लुधियाना में आया, उन्हीं अफसरों ने पल्ला झाड़ लिया। वह गुरुद्वारे में भी गया, गुरुद्वारे से भी पैसे मांगे।
गुरुद्वारे वालों ने काम पूछा, फिर जाती के बारे में पुछा। सरदारों को कभी भी जाति में बांटा नहीं गया था, कम से कम उसके गांव में तो नहीं। पर गुरुद्वारे में पहली बार उसकी जाति पूछी गई। ईश्वर सिंह थोड़ा सा मूक हो गया। वो बोला कि हमारे धर्म में तो जाति का कभी प्रावधान था ही नहीं और सरदारों को लगा कि यह नीच जाति का होगा, तभी करके ऐसी बात कर रहा है। उन्होंने उसे बोला कि नीच जाति के गुरुद्वारे आने का दरवाजा वहां से, तुम थोड़ा उधर से आओ। धर्म के अंदर इस प्रकार का पक्षपात उनको हजम नहीं हो रहा था। उसने थोड़े पैसे मांगे कोई देने को तैयार नहीं था। सरदार जी बैंक में जाकर लोन लेने का भी उठे, आखिर नया-नया राष्ट्रीयकरण हुआ था। पर शायद इस गरीबी तक आने के लिए बैंकों का थोड़ा और राष्ट्रीय होना जरूरी था। सरदार जी घूमते रहे उन्हें समझ में नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। एक नया शहर, एक नई आबोहवा, और उनकी पत्नी का वहां पर तबीयत का खराब होना ।
अस्पताल पहुंचे और इतनी देर में सरदारनी की मौत हो गई। वह अपनी नौकरी छोड़कर जाने लगे थे वापस उसी जगह, जहां पर उनकी जड़ें थी। अपनी पत्नी को उन्होंने पूरे क्रिया कर्म के साथ अग्नि में छोड़ दिया था। रस्मो रिवाज भी कर दिए थे। ‘बोली’ के पास जाकर भी पूर्ण रूप से जल की छीटें ले ली थी, मानो वह अपने होश में नहीं थे। उसी बीच उनको पता चला कि उनके आला अफसर का हुक्म आया है, उन्होंने सरदार जी की पेशी मांगी थी। उनको पता चला की उनके वहाँ चोरी हुई है। उसके बारे में सरदार जी को कोई बौद्ध नहीं था। होता भी कैसे, अभी तक वह अपनी पत्नी के क्रिया क्रम में ही तो व्यस्त थे। पहुंचे तो पता चला कि चोरी के मुख्य आरोपी के तौर पर सरदार जी को देखा जा रहा था, आखिर उसे पैसों की जरूरत भी थी।
सरदार जी बोखला गए, उन्हें नहीं पता था कि मुख्य शहर में आना, उनके लिए इतनी बड़ी चुनौती हो सकती है। गरीब थे, लालची भी हो सकते थे, पर चोरी उसके बस की नहीं थी, “मैं कभी भी अपना ईमान ना बेचता”। वह आज भी अपने हाथों में विश्वास रखता था। यदि वे ड्राइवर ना होते, तो लकड़ी काट-काट कर भी अपनी पत्नी का पेट भर सकता थे। और इतने में वो फिर रो पड़े। हुक्म्दराज़ का कहना था कि उसे पुलिस में दर्ज करवा दिया जाएगा, पर साहब की बीवी रहमदिल थी, उन्होंने सरदार जी की तरफदारी की उनको बोला कि आप जाइए हम आपको क्षमा करते हैं। सरदार जी क्षमा मांग भी नहीं रहे थे। बस उन्हें किसी बात की क्षमा मिल रही थी। किस कारणवश थोड़ा अजीब था पर क्षमा मिल चुकी थी।
सरदार जी क्षमा को पाते ही निकल पड़े। जाते-जाते वो गाड़ी को देखना चाहते थे, कि कहीं उनका कोई समान तो अन्दर नहीं रह गया। अंदर एक किताब पढ़ी थी पंजाबी में, सरदार जी थोड़ी बहुत पढ़ना जानते थे। वो किताब शायद साहब के बेटे की थी। उसके सबसे ऊपर लिखा हुआ था रोबिन हुड, पहली बार कोई चीज़ उन्हें इतनी ज्यादा अपनी ओर खींच रही थी। पढ़ाई लिखाई से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था बस थोड़ा पंजाबी पढ़ना जानते थे। उन्होंने एक पेज पर 2 घंटे लगाए। अब कुछ बचा ही नहीं था। जाना था तो घर ही जाना था। 2 दिन पढ़ते ही रहे।
अंदाजा हुआ कि उनके अंदर एक बदले की आग थी जो उन्होंने अपने पत्नी की चिता में देखी थी। तीसरे दिन की सुबह थी, उन्होने अपने आस पास देखा, वहां पर सिर्फ उनका परिवार नहीं था जो उस गंदगी और आबोहवा में रहता था, एक ऐसे निम्न जगह पर जहां पर सिर्फ वे लोग ही रहते थे, जिसको समाज ने अलग-थलग किया हुआ था। अब सवाल यह भी उठ रहा था कि वह किस प्रकार से अपने आप को उठाएं। उन्होंने अपने आप से खूब सवाल किए जो जायज़ भी थे।
उनकी चोरी-चोरी कैसी थी, इसके बारे में अंदाजा लगाना मुश्किल है। यदि उन्होंने अभी तक कुछ चुराया था, तो वह थी किताब जो गाड़ी में थी, और वह भी उन्होंने इसलिए चुराई क्योंकि उसके मुख्य पृष्ठ पर उनको एक तीर दिखाई दिया था। बचपन में वह भी थोड़ा तीरंदाजी करना जानते थे, दशहरे के समय पर जब रावण को जलाने की बारी आती थी और राम के लिए निरीक्षण होता, तब सबसे अच्छा फिर वही चलाते थे, उनको फिर भी किसी न किसी रूप में नकार दिया जाता था।
इंदिरा का साम्यवाद यहां पर काम नहीं कर रहा था। इंदिरा का साम्यवाद उसके सामने रुक गया था जब वह अपने परिवार से हार रही थी। प्रशासन ने कभी भी साम्यवाद की तरफ ध्यान ही नहीं दिया, अमीरों ने साम्यवाद को पहले ही नकार दिया। यदि कहीं ना कहीं किसी भी रूप में मीडिया ने प्रकाशित कुछ भी किया तो वह थी पश्चिमी पाकिस्तान से जुड़ी बातें, या फिर बदलती सत्ता। सरदारनी की मौत-मौत नहीं थी, हत्या थी, उनके द्वारा जो पूंजीवादी थे, हत्या थी, उनके द्वारा जिन्होंने समाज को समाज मानने से इनकार किया।
तीसरे दिन की सुबह का समय था, पास के किसी गुरुद्वारे में अरदास की आवाज़ आई। उसके मन में नानक की “चंगे लोका नू बिछड़ जान” बात निकल आई। उसने सोचा कि शायद इसलिए बाबा जी ने उसको अपने परिवार से दूर किया है ताकि इन लोगों के लिए भला कर सके। उसने अपनी दस्तार ठीक की, पगड़ी संभाली और काम करना शुरू किया। वे अब अपने आप को सच्चा सिख का सिपाही समझने लगे और बाक़ियों को सिखि के दुश्मन। अब वे वापस नहीं जाने वाला थे। उसने खूब सोचा और अब वह बना लुधियाना का रॉबिनहुड।
उसी रात को उसने अपने आला अफसर के घर में सच में चोरी कर डाली, उसे जगह का पता था। उसी पैसे से उसने अगले दिन उसने चने लिए, आटा लिया और अपने पास वाले घर में जहां पर खाने के मोहताज लोग रहते थे, गेट के बाहर रख दिया। चुपचाप वो अपने घर के अंदर चला गया। सिलसिला बढ़ता रहा अगले ही दिन उसने गुरुद्वारे के अंदर चोरी कर डाली। गुरुद्वारे में चोरी की और वहां से जितने भी पैसे मिले, उससे उसने बच्चों के स्कूल के लिए दान में देने का सोचा, अपने मोहल्ले के बच्चों का वहां पर एडमिशन भी करवा दिया। तीसरे दिन उसने डाका डाला, बैंक में बहुत मुश्किल से डाँका लगा, पकड़े जाने की पूरी पूरी संभावना थी, पैसे भी कुछ खास नहीं आए थे, पर इतने थे कि 1 महीने के लिए एक परिवार का खर्चा चल सकता था। ऐसे करते-करते लुधियाना के तमाम बड़े बड़े घरों में वो चोरी करने लगा पर पकडा नहीं गया।
“जाको राखे साइयां मार सके ना कोई”
बाक़ी लोगों को ईश्वर के रूप में देख रहे थे ईश्वर सिंह। किसी को रिक्शा, किसी को दहेज, किसी का खाना, सब इश्वर देखते थे। पर उसकी खबर अब इतनी भी बड़ी नहीं थी कि पश्चिमी बंगाल से ऊपर रखी जाए, उसको स्थानीय कवरेज में एक छोटा सा अंश दे दिया गया।
कई आशंकाएं यह भी थी कि वो शायद किसी आतंकी संगठन से जुड़ा हो सकता है। गरीब लोग अब उसे सच में ईश्वर मानते थे। कई लोग यह भी कहते कि ईश्वर कोई फरिश्ता है, उसके पास पंख है। वह उड़कर आता और सब की बातें सुनता और उनकी ख्वाहिशें पूरी करता है। ये भी कहते कि वो आग से निकला है, उसका वर्णन पुराणों में भी है। कई लोग उससे कल्कि के अवतार के साथ भी जोड़ते। अब ईश्वर भी अपने आप को सच में ईश्वर समझ चुका था बेखौफ होकर चोरी करता। समय बीत रहा था, सिलसिला 6 महीने चलता रहा। एक रोज़ सोचा कि क्यों नहीं मंत्रियों के घर पर चोरी की जाए।खतरा था, पर खतरा कहाँ नहीं होता। वहां पर एक विधायक के घर चोरी कर ली। चोरी करते उसके पास कुछ कागज़ भी आए। भागने लगा तो पकड़ा गया। पुलिस अधिकारी देखने लगे की ईश्वर के पास कोई कागज भी आ गए थे।
विधायक जी को जैसे ही कागजों के बारे में पता चला, वह बौखला गए। कागज कोई साधारण कागज नहीं थे, कुछ खास थे, शायद समाज में नहीं आ सकते थे। विधायक जी को पक्का लगा कि ईश्वर किसी संगठन के साथ जुड़ा है, या तो किसी दुसरे दल के साथ या किसी आतंकी संगठन के साथ। उन्होंने फौरन सी.एम. साहब को चिट्ठी लिख डाली। यह बात मीडिया तक नहीं जा सकती थी, यदि ऐसा होता तो बहुत सारे सवाल उठते। ना उसको कोर्ट में ले जाया जा सकता था। यदि उसको कोर्ट में लेकर जाते तो भी चिट्ठी की बात सामने आ सकती थी। सरकार ने यह निर्णय लिया कि उसे मार दिया जाए, यदि खुला छोड़ दिया जाता, तो बहुत बड़ा नुक्सान हो सकता था।
सरकार की छवि मिट्टी में मिल सकती थी। सरकार ने निर्णय किया कि अब एक ही चीज हो सकती है, एनकाउंटर, रात्रि के अंधेरे में जब दस्तार ठीक करके ईश्वर जाता था, उसी अंधेरी रात्रि में ईश्वर को भगा दिया गया। और उसके पीछे कुत्ते छोड़ दिए और उसके पीछे थे पुलिस वाले, उसे मारने के लिए। कुत्ते भोंकते रहे, भूखा-प्यासा ईश्वर एक घन्टे तक दौडा, ईश्वर के लिए गोलियां चलाई जाती रही। अंत में गोली निकली और ईश्वर को जाकर लगी। अगले दिन अखबार में आया कि ‘जो व्यक्ति चोरी करता था वह किसी आतंकी संगठन के साथ जुड़ा मिला।
विधायक जी को मारने के लिए आया था। भागने की कोशिश की और पुलिस वालों ने एनकाउंटर में उसे मार गिराया। खतरा टला, लुधियाना फिर से सही हाथों में।’ मां और पिता बहुत रोए। सारा गांव मानो आज तक मय्यत में था। रोबिनहुड भी आना बंद हो चुके थे। विधायक जी को कैबिनेट में जगह मिल गई। जिन पुलिसकर्मियों ने एनकाउंटर में हिस्सा लिया था, उनकी भी प्रमोशन हो गई । 1971 में बांग्लादेश आजाद हो गया, इंदिरा के काफी वाहवाही भी हुई। साम्यवाद फैलाने की कोशिश भी की गई।
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