कहानियाँ तो बहुत हैं, तुम कौन सी चुनोगे,
कहना भी बहुत कुछ है, तुम क्या-क्या सुनोगे,
यूँ तो रंग बहुत से हैं उस इंद्रधनुष में,
तुम कौन से रंग से अपनी बात बुनोगे।
कितनी ही कहानियों का हिस्सा हूँ मैं,
कितनी ही बातों का किस्सा हूँ मैं,
चुना तो मैने कभी था ही नहीं,
फि़र भी कितने ही रंगों में सनी हूँ मैं।
शुरूवात तो शायद पाक़ सफे़द से हुई थी
और फि़र मैं बंटती चली गई.
हर कहानी में एक नया रंग,
हर बात में एक नया ढंग ।
कुछ छिन गए और कुछ,
कुछ शायद मैने ही गवा दिए।
अब वो रंग हैं भी और नहीं भी हैं,
जो हैं वो सही हैं भी और नहीं भी हैं।
कुछ मेरे रंग मुझमें बचे भी तो हैं,
कुछ तुम्हारे रंग मुझमें घुले भी तो हैं।
अब मैं जो हूँ ,वो कुछ तुम भी तो हो,
जो तुम हो, वो कुछ मैं भी तो हूँ।
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