अक्सर टांक देते हैं संजो कर कवि चांद को छंदों के साथ श्रृंगार में मढ़ते हुए कविताओं में,
मैं अचरज में गोते खाता देखता हूं नए विस्मय के साथ,
सोचता हूं कि क्या प्रेम के बिना नहीं है कोई अंत?
क्या दुनियावी प्रेम ही है मात्र एक प्रकार का सुकून?
क्या मुक्कमल होना ही होता है प्रेम का तट?
और क्या गैर ज़रूरी नहीं अलंकारों से जोड़ना प्रेम को?
चन्द्रमा चांदनी के बिना फीका ही रहा है।
और चांदनी में गमक आती सूर्य से।
मानो दिए जाता है एक पिता प्रत्येक रोज़ कुछ ना कुछ अपनी बिटिया को,
जबतक खत्म सा ना होता उसका अस्तित्व,
चन्द्रमा बनाम जमाई इठला कर रख लेता है श्रेय चांदनी का,
मैं विस्मित्व से जांचता हूं चांद को,
कि किस प्रकार रूढ़िवादिता में चंद्रमा चांदनी को नहीं दे पाया उसकी उचित जगह,
और ऐलान-ए-आगाज़ होता है चंद्रमा की चांदनी का,
मानो चांदनी का अस्तित्व नहीं चांद के बिना…
यदि ऐसा भी है तो दिखता कैसा होगा चांद बिना गमक के?
धब्बों सहित, बुझा बुझा, यूं ही खोया सा…
क्षण-क्षण जोड़ते हैं चांद को श्रृंगार रस की कविताओं में मेरे कवि मित्र और भूल जाते है सदैव ही उस प्रथा को जो झूठी रही।
उनकी प्रत्येक कविताओं में यदि कुछ सच्चा रहा तो मात्र प्रेम, जो लेकर चलता रहा सब आगे….
मुझे एक शिकवा और भी है तुमसे चंद्रमा
यूं रात में तुम्हारा आना होता है नवीनता का प्रतीक,
मैंने स्वयं को उससे परे जाना है,
नवीनता एक वो छोर है जो भाया सा ही नहीं,
अनेकों बार वे लोग जो थोड़े टूटे से होते, रोंदे से होते, तह तह में खोए से,
वो खोजते आशियां को रात्रि में,
पिशाचर मात्र पिशाचर नहीं होते चंद्रमा!
वे ढूंढते हैं सुकून को एक एकल अंधेरी रात में जहां सूर्य की पहली किरण डगमगा देती है सारी सृजनात्मकता को।
मैं सूर्य को इतना प्रेम नहीं कर पाया चंद्रमा, जितना किया उस रात्रि को!
सूर्य सदैव सैद्धांतिक रहा,
पर रात्रि, रात्रि मेरी अपनी रही, मेरी प्रिय, मेरी खास…
क्या यूं ही भरते हैं सभी तुम्हें अपने आलिंगन में चंद्रमा?
या स्तब्ध रहते हैं जब वो उतारते तुम्हें जाम में,
क्षुब्ध तो नहीं होते ना तुम, जब उदाहरणों से लाद देते हैं वे तुम्हें?
क्या लिखता होगा श्रृंगार रस का कवि भी रौद्र रस में,
क्या खोजता होगा वात्सल्य भी श्रृंगार को, और झांक पाता होगा प्रेम को?
क्या देवनागरी मिलती होगी गुर्मुखी से और करती होगी नई भाषा का इजाद?
क्या उर्दू यूं ही रहेगी दूर का प्रेम बनकर?
और क्या घूमना छोड़ेगी ये पृथ्वी भी कभी?
क्या यूं ही एक प्रेम की पवित्रता में बहता रहेगा झूठ, और बनते रहोगे तुम साक्षी?
बोलो चंद्रमा…
~कौशल
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