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GOGO Magazine > Blog > Blog > गांधीजी के दास
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गांधीजी के दास

Heerak Singh Kaushal
Last updated: 2022/08/20 at 5:31 PM
Heerak Singh Kaushal Published July 4, 2020
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14 Min Read
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आदमी की कोई कीमत नहीं होती, उसके काम की होती है। काम कोई भी हो सकता है, पर वह लोग जो उस तबके से है जहां पर काम को छोटा समझा जाता है, तो वहां पर क्या? क्या कीमत और ज्यादा छोटी हो जाती है? या कभी बढ़ ही नहीं पाती? समाज को वर्गों में बांटा गया है। कहते हैं ब्राह्मणों ने अपने आप को ऊंचा रखने के लिए समाज का ऐसे रहना स्वीकार किया। अब इस बात में कितनी सच्चाई है, या कितना फरेब इसे कोई नहीं जानता। शिव का गांव मारकंडे, कुरुक्षेत्र के एक छोटे से कस्बे के पास पड़ता है। कहते हैं कि यहाँ पर विधि का विधान बदलवा दिया गया था। मारकंडे बहुत बड़े ऋषि थे उन्होंने शिव की उपासना की और शिव ने यमराज को वापस भेज दिया और मार्कंडेय को आजाद किया। वह जितना और जीना चाहते थे वह जी सकते थे, खैर यह भी अपने आप में एक विडंबना वाली बात है।

1930 में जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर पर झंडा फहराया और तभी बात उठी “पूर्ण स्वराज” की यानी हर एक प्रकार की आजादी होना, मुक्ति होना, अपने आप में एक प्रकार की सजगता होना ।यूं तो आजादी की गतिविधियां बड़े-बड़े शहरों में ही देखने को मिल रही थी पर छोटे-छोटे जगहों पर भी उसका थोड़ा बहुत असर देखने को मिलता था। मारकंडे में भी एक ऐसा ही शख्स था, बौखलाया हुआ, जो यह समझता था कि गांव के अंदर भी आजादी की अभी जरूरत है। गांव के अंदर भी आजादी की कभी जरूरत होती थी इस बात को बहुत कम लोग समझते थे। मुश्किल से यहां पर कोई अंग्रेजी आला अफसर आते थे, मुश्किल से ही आप पर कोई जटिलता होती थी पर फिर भी आजादी की जरूरत होती थी। उसका नाम था राम दास, उसके तबके के लोगों के पीछे दास लगाना जरूरी होता था ताकि नियंत्रण में रखा जाए कि कौन दास है और कौन नहीं। पिता कूड़ा वगैरह उठाते थे। कभी कबार मल मूत्र भी साफ करते थेह रामदास भी जब स्कूल में पढ़ने जाता था तब उसे पीछे बिठा दिया जाता था। छुआछूत तो था ही, पढ़ते-पढ़ते ही उसे उठाकर कोई काम पर भेजा जाता था।पढ़ाई कभी भी रामदास के लिए बनी ही नहीं थी।

आजादी उसके लिए आजादी नहीं थी। उसका बहुत अच्छा दोस्त था। अर्जुन कहते हैं जब 13 साल की उम्र का था तब दिल्ली चला गया। वहां पर उसे गांधीजी मिले, गांधीजी अपनी वानर सेना की खोज में थे और उन्होंने वहीं पर ही अर्जुन को देखकर उसे अपना लिया, अर्जुन को श्री राम मिले। अब कभी कभी वह अपने गांव में वापस लौटता तो दुनिया भर की बातें सुनाता। रामदास गांधी जी की तरह-तरह की बातें सुनता। दिन-रात बैठकर गांधीजी के बारे में सोचता। गांधीजी क्यूँ ऊपर से कपड़े नहीं पहनते, क्या उनका चश्मा कभी टूटता नहीं है? और इतने सारे विचार उनमें कैसे आ जाते हैं? यह तो अचरज की बात है।अर्जुन हर साल में एक बार आता और जब आता तब नए-नए किस्से बताता। 13 साल का रामदास अब 18 का होने लगा था, जिंदगी बदल रही थी, चाहता था कि वह भी अर्जुन की तरह जाए और गांधी जी की सेना में शामिल हो जाए। अभी बात करने ही वाला था कि अर्जुन ने आकर उसे यह बता दिया कि गांधीजी को गांव पर बहुत ज्यादा नाज़ है, वह समझते हैं कि देश की तरक्की तभी हो सकती है यदि गांव की तरक्की हो पाए। रामदास को मानो ऐसा लगा कि यह उसके लिए ही है। गांव की तरक्की केवल वही है जो कर सकता है।

अब तो गांधी की भी पूर्ण स्वराज की बातें करने लगे हैं कहने लगे हैं कि हमें हर एक चीज़ के खिलाफ आवाज उठानी चाहिए,  बातों से प्रभावित रामदास उस दिन दिनदहाड़े कुए पर पानी भरने चल दिया जब गांधी जी अपनी दांडी मार्च को निकले, गांव में हड़कंप मच गया किसी ने सोचा नहीं था कि इस तबके के लोग सभी ऐसा भी कार्य कर सकते हैं। इतना साहस, इतना कपट। मां-बाप के विरुद्ध जाकर उसने ऐसा कार्य किया और मानो सैलाब आ गया। 5 दिन तक हुए को इस्तेमाल करने से वर्जित कर दिया गया शायद 5 दिन का समय उचित होता है अछूत चीज को छूट बनाने के लिए। मुख्य ब्राह्मण देवता आए, यह निर्धारित किया गया कि अब इस परिवार से किसी का कोई तालुकात नहीं रहेगा। पूरे तबके के लोगों को एक सीख सिखानी थी, यदि ना सिखाई जाती तो बहुत बड़ा अपराध होता। यूं तो सरपंच साहब ने बिरादरी से निकल जाने की बात को सही ठहरा कर बात खत्म कर दी। पर अभी भी लोग थे जो चाहते थे इनकी मृत्यु का होना। यदि उनके सम्मान पर आंच आती है तो इसका अर्थ यही है कि सामने वाली की मृत्यु हो जाए। सम्मान कितना बड़ा सम्मान है यह बात थोड़ी अलग है। क्या सम्मान ही है या नहीं यह बात भी थोड़ी अलग है।

बरसों से चली आ रही प्रथा को तोड़ने की सजा यही मिली कि रामदास के पिता को भी नौकरी से निकाल दिया गया। और जो भी उनके परिवार से तालुकात रखता है उसे भी बिरादरी से निकाल दिया जाता। पिता माता बहुत परेशान थे उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि ऐसा भी हो सकता है। उसी रात्रि को घर में बहुत कोलाहल मचा, मां ने सारे तांबे के बर्तन बाहर फैंके, यदि घर में खाना ही नहीं बनेगा तो मैं बर्तनों का क्या करूंगी। पिता ने तो मानो मार मार कर बुरा हाल कर दिया। दादा अपाहिज थे, पहले बहुत काम करते थे पर अब अब वो सिर्फ बिस्तर पर होते थे। दादी बहुत पहले ही संतान देते समय मर गई थी। रामदास को गांधी जी की बात याद थी, यदि कोई आपके एक गाल पर मारे तो आप दूसरा गाल आगे कर दो। वह थोड़ा अलग जिद्दी हुआ पड़ा था। अलग प्रकार की फर्काप्रस्थी। पिता और माता की सोच से परे था ये सब। ले देकर ऋषि मार्कंडेय से पूजा कर-कर के एक ही पुत्र मिला था और वह भी उनके कहने में नहीं, यह बात दोनों को हजम नहीं हो रही थी। इससे बेहतर तो वो कभी नहीं होता। वह पुत्र जिसने पैदा होकर उनका हुक्का पानी बंद करवा दिया, बिरादरी में बोलचाल बंद करवा दिया, उससे क्या ही कहा जाएऔर सुनना तो दूर वह अपनी ही बोलते हुए आगे चला जाता है।

आखिर कौन था यह गांधी जिसने ना उसका कभी बेटा मिला और वह ऐसी हरकतें करता जा रहा है। पिता का बस चलता तो अभी गांधी की खबर लेता और बोलता अपने काम से काम रखने को। खैर स्थिति थोड़ी सामान्य होने लगी। ऐसा नहीं था कि सारे अपने भूल चुके थे पर गांव के सबसे बड़े साहूकार वीरभान, पिता उसके पास गए कांपते हुए, डरे सहमे से पिता ने जाकर उसे सारी बात बताई वह यह भी सोच रहे थे कि गांव छोड़कर चले जाएंगे पर गांव छोड़कर जाते भी कहां? वहां जद्दी मकान था उनका और बाहर जाकर उन्हें नहीं पता था कि कौन सी दुनिया उनके लिए कैसी है। वह अभी भी कुएं के मेंढक ही थे, जैसे सभी थे। वीरभान से पूरा गांव डरता था कहते हैं कि सब पर उसने कोई ना कोई पैसे दे रखे हैं पिता को भी उसने एक छोटा सा खेत दिया और थोड़े से आने दिए इस शर्त पर कि आई महीने वह डेढ़ गुना देगा पिता ठीक थे, मार्कंडेय नदी की कृपा से गांव में खूब वर्षा हुई। फसल भी अच्छी उगी। बेटे पर थोड़े निगरानी रखी जाने लगी, ज्यादातर समय वो पिता के साथ ही रहता, इतनी हरी भरी फसल देख वो खुश था। राम दास अब गांधी जी को खत लिखता था, बहुत कुछ लिखता, डाक में भी भेजता, पर डाक पर पता ना होता, होता तो बस “गांधी जी”। 

उसने निमंत्रण भी भेजा, वो चाहता था कि जब कभी भी गांधी जी आएं तो वो वहीं पर हो। अब सब ठीक हो सकता था, कुछ ही दिनों में रीपना और सब वापिस। ना जाने कैसे फसल को आग लग गई या लगा दी गई इसमें अभी भी दो-तीन राय थी। यह जरूर था कि फसल के पास लोग हंस रहे थे यदि उसके तबके के लोग होते तो वह उन्हें खुद ही बता देता पर वह लोग ऊपर के मानो भगवान धरती पर कोई प्रलय लाकर हंस रहा हो। पिता को समझ में नहीं आया रात्रि के अंधकार में फसलों का जलना उसके लिए उसी समान था मानो चिता जल रही हो। “चिता जल रही हो” वो चुपचाप आग में जाकर बैठ गया मां ने खूब रोकने की कोशिश की रोई-चिल्लाई पता नहीं क्या-क्या। पर सब व्यर्थ। पिता के मुख से एक आवाज़ नहीं आई, मानो ये ही चाहते थे वो, उनके मुंह से चीख चिल्लाने की, दर्द की, कुछ नहीं। पानी डालने की कोशिश की जा रही थी फसलों में बहुत ज्यादा पानी डाला गया आग शांत भी हुई। पर पिता का शरीर झुलस चुका था। शरीर पर एक चीज जो बड़े अच्छे तरीके से दिख रही थी वह थी “दास”। कहते है कि पिता की मां ने उनका पूरा नाम गढ़वाया था जब छोटे थे।

नाम का पहला शब्द झुलस चुका था रह गया था तो “दास”। दादा अपने पुत्र की मृत्यु को बर्दाश्त नहीं कर पाए, और अगले दिन ही भगवान को प्यारे हुए। मां ने निर्धारित परंपरा के अनुसार अपने बाल मुंडवा दिया सफेद साड़ी ले ली घर से बाहर निकल कर आश्रम को रहने के लिए चलदी। बेटे ने खूब रोका मां तुम्हें ऐसा कुछ करने की जरूरत नहीं है। गांधीजी यह कहते हैं कि हमें ऐसा करना नहीं चाहिए। मां रुकी और कस के एक थप्पड़ मारा। मां के बस में होता तो गांधीजी को जाकर उनसे खूब लड़कर आती झगड़ कर आती क्योंकि वही थे जिससे उनके पूरे परिवार को खत्म करके रख दिया पर अब उसके बस में नहीं था। विधि के विधान से हार चुकी थी। बेटा आजाद था। एक ऐसी आजाद जगह पर जहां पर पग पग पर उसके लिए कांटे बिछाए जाते थे। वीरभान पैसे की भाषा समझता था। उसको किसी की मृत्यु से कोई फर्क नहीं पड़ा। वादे के अनुसार अगले महीने आया और घर का सामान ले गया। उसने दास की शक्ल देखी एक अजीब सी हंसी, जो उसे याद दिला रही थी मानो वह गलत कर रहा हो। खूंखार आवाज में बोला “बहुत हंसी आती है तुझे? रामदास ने थोड़ा और मुस्कुरा कर बोला कि देखो मैं आजाद हूं। मुझे आजादी की हंसी तो लेने दो।”कुछ क्षण की ही देरी थी और वीरभान का गुस्सा मानो आसमान छू बैठा। उसने कस्सी निकाली और….अगले दिन वीरभान के आदमियों ने खबर फैला दी कि दास के परिवार को मुक्ति मिल गई है।

image courtesy: kitabganj

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Heerak Singh Kaushal August 20, 2022 July 4, 2020
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By Heerak Singh Kaushal
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A person who is not afraid to 'call a spade, a spade'. You can often find me in two moods, either talking to everyone or just a quiet child. I live in a bubble that whatever it is shown in the newspapers, people are still good at heart. I wish you the best and may your pain just blow away!
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    July 4, 2020 at 11:54 pm

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