तो कट गई है घास?
क्या उगी हुई थी घास?
कितने समय से उगी थी?
क्या तबसे उगी थी जब कोई नहीं होता था बांटने के लिए पक्षों को हिस्सों में?
क्या तबसे उगी थी जब निचोड़ा नहीं जाता था जिस्म को, काटा नहीं जाता था ज़बान को?
कहीं तबसे तो नहीं उगी जब रक्षक, भक्षक बन जाते थे?
क्या घास का उगना स्वाभविक नहीं है?
ये घास पाश की घास है जो बार बार कटते कटते उगती जायेगी और खा जाएगी तुम्हारे ज़ुल्म।
ये घास बदले में जली हुई है, जो एक रोज़ ऐसा जलेगी की कहीं बच नही पाएगा कोई बिन जले, बिन तडपे।
ये घास को गुमान है खुद पर, इतना गुमान की रौंदते रौंदते तुम थक हार जाओगे, पर ये उगेगी फिर से,
उसी जगह, उसी तरफ़।
तो क्या काटते रहोगे घास को?
सम्भाल कर, कहीं ज़रूरत से ज़्यादा कट गई तो बताया जाएगा हर जगह, की कटी क्यूँ हैं घास।
इसका रंग हरा नहीं, लाल है, लाल जो बरसों से बहता आ रहा है, कहीं लाल ज़्यादा हो जाता है, तो बन जाता है काला,
मेरे घास का रंग हरा होने से पहले ही होता है लाल।
मैं चाहता हूँ ये घास इतनी बड़ी हो जाए, कि बन जाए फंदा, उन सबके लिए जिसने इसे हरा नहीं होने दिया।
चाहता हूँ की मज़बूत हो जाए इतनी जड़ें इसकी, की कोई काटे तो हिल जाए उसकी रीढ।
ये घास अपने आप में अब एक विद्रोह है।
मेरी घास नस्तोनाबूत रहेगी, मयस्सर सी, कटती सी।
~कौशल
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